patanjali_yog_sutra
पतंजलि योग सूत्र
। (विष्णुतीर्थ टीका)
समाधिपाद
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अब योग अनुशासन ॥१॥
(पतंजलि को गुरु परम्परा में
मिली योग शिक्षा )
योग चित्तकी वृत्तियों
का निरोध है ॥२॥
तब दृष्टा अपने स्वरूप
में स्थित हो जाता है ॥३॥
वृत्तियों का सारुप्य
होता है इतर समय में ॥४॥
वृत्तियाँ पाँच प्रकार
की - क्लेशक्त और क्लेशरहित ॥५॥
प्रमाण विकल्प विपर्यय
निद्रा तथा स्मृति ॥६॥
प्रत्यक्ष, प्रमाण
और आगम, प्रमाण के तीन भेद हैं
॥७॥
विपर्यय वृत्ति मिथ्या
ज्ञान अर्थात जिससे किसी वस्तु
के यथार्थ रूप का ज्ञान न हो ॥८॥
ज्ञान जो शब्द से उत्पन्न
होता है, पर वस्तु होती नहीं,
विकल्प है॥९॥
ज्ञेय विषयों के अभाव
को ज्ञान का आलंबन , निद्रा ॥१०॥
अनुभव में आए हुए विषयों
का न भूलना, स्मृति ॥११॥
अभ्यास तथा वैराग्य
के द्वारा उनका निरोध ॥१२॥
उनमें स्थित रहने
का यत्न, अभ्यास ॥१३॥
वह अभ्यास दीर्घ काल
तक निरन्तर सत्कार पुर्वक सेवन
किए जाने पर दृढ़ भूमिका वाला
होता है ॥१४॥
देखे हुए सुने हुए
विषयों की तृष्णा रहित अवस्था
वशीकार नामक वैराग्य है ॥१५॥
वैराग्य, जब पुरुष
तथा प्रकृति की पृथकता का ज्ञान,
उससे परे परम् वैराग्य जब तीनों
गुणों के कार्य में भी तृष्णा
नहीं रहती ॥१६॥
वितर्क विचार आनन्द
तथा अस्मिता नामक स्वरूपों से
संबंधित वृत्तियों का निरोध
सम्प्रज्ञात है ॥१७॥
(वैराग्य से वृत्ति
निरोध के बाद) शेष संस्कार अवस्था,
असम्प्रज्ञात ॥१८॥
जन्म से ही ज्ञान, विदेहों
अथवा प्रकृति लयों को होता है
॥१९॥
(गुरु,साधन,शास्त्र
में) श्रद्धा, वीर्य (उत्साह),
बुद्धि की निर्मलता, ध्येयाकार
बुद्धि की एकाग्रता, उससे उत्पन्न
होने वाली ऋतंभरा प्रज्ञा - पाँचों
प्रकार के साधन, बाकि जो साधारण
योगी हैं, उनके लिए ॥२०॥
तीव्र उपाय, संवेग
वाले योगियों को शीघ्रतम सिद्ध
होता है ॥२१॥
तीव्र संवेग के भी
मृदु मध्य तथा अधिमात्र, यह तीन
भेद होने से, अधिमात्र संवेग
वाले को समाधि लाभ में विशेषता
है ॥२२॥
या सब ईश्वर पर छोड़
देने से ॥२३॥(ईश्वर प्रणिधान)
अविद्या अस्मिता राग
द्वेष तथा अभिनिवेष यह पाँच
क्लेश कर्म, शुभ तथा अशुभ,फल,
संस्कार आशय से परामर्श में
न आने वाला, ऐसा परम पुरुष, ईश्वर
है ॥२४॥
उस (ईश्वर में) अतिशय
की धारणा से रहित सर्वज्ञता
का बीज है ॥२५॥
वह पूर्वजों का भी
गुरु है, काल से पार होने के कारण
॥२६॥
उसका बोध कराने वाला
प्रणव है (ॐ)॥२७॥
उस (प्रणव) का जप, उसके
अर्थ की भावना सहित (करें) ॥२८॥
उससे प्रत्यक्ष चेतना
की अनुभवी रूपी प्राप्ती होगी
और अन्तरायों का अभाव होगा ॥२९॥
शारीरिक रोग, चित्त
की अकर्मण्यता, संशय, लापरवाही,
शरीर की जड़ता, विषयों की इच्छा,
कुछ का कुछ समझना, साधन करते रहने
पर भी उन्नति न होना, ऊपर की भुमिका
पाकर उससे फिर नीचे गिरना, वित्त
में विक्षेप करने वाले नौ विध्न
हैं ॥३०॥
दुख, इच्छा पूर्ति
न होने पर मन में क्षोभ,कम्पन,श्वास
प्रवास विक्षेपों के साथ घटित
होने वाले ॥३१॥
उनके प्रतिषेध के
लिए एक तत्त्व का अभ्यास करना
चाहिए ॥३२॥
सुखी, दुखी पण्यात्मा
तथा पापात्मा व्यक्तियों के
बारे में, यथा क्रम मैत्री, करुणा,
हर्ष तथा उदासीनता, की भावना
रखने से चित्त निर्मल एवं प्रसन्न
होता है ॥३३॥
या, श्वास प्रवास की
क्रिया को रोककर शरीर के बाहर
स्थित करना अथवा अन्तर में धारण
करने से वृत्ति निरोध होता है
॥३४॥
अथवा शब्द, स्पर्ष,
रूप, गंध वाली दिव्य स्तर की वृत्ति,
उत्पन्न होने पर चित्त वृत्ति
का निरोध करती है क्यिंकि वह
मन को बांधने वाली होती है ॥३५॥
अथवा ज्योतिषमती नाम
की विशोका ज्योतियों से ॥३६॥
अथवा उनका महात्माओं
का ध्यान करने से, जिनका चित्त
वीतराग हो गया है ॥३७॥
अथवा निद्रा में ध्यान
करने से ॥३८॥(पहले निद्रा को
सत्वगुणी बनाना आवश्यक है, गीता
में कहा गया है कि जब सब नींद
में होते हैं, योगी जागता है ।
उससे यही अर्थ बनता है ।)
अथवा जैसे भी (श्रद्धा
से अभिमत) ध्यान ॥३९॥
(उस ध्यान से) परमाणु
से परम महान तक उस निरुद्ध योगी
की वशीकार अवस्था हो जाती है
॥४०॥
क्षीण हो गयी हैं वृत्तियाँ
जिसकी, अभिजात मणि के समान वह
द्रष्टा, वृत्तियों से उत्पन्न
ज्ञान, जिन विषयों का ज्ञान ग्रहण
किया जाता है, या जिस पर उस चित्त
की सथिति होती है, उसी के समान
रंगे जाने से, उसी के समान हो
जाता है ॥४१॥
उन में से शब्द अर्थ
तथा ज्ञान के तीनों विकल्प सहित
मिली हुई, सवितर्क समापत्ती
है ॥४२॥
शब्द तथा ज्ञान, इन
विषयों के हट जाने पर तथा अपने
स्वरूप की भी विस्मृती सी हो
जाने पर, जब अर्थ मात्र का आभास
ही शेष रह जाता है, निर्वितर्क
सम्प्रज्ञात है ॥४३॥
इस प्रकार सवितर्क
एवं निर्वितर्क समाधि के निरुपण
से सविचार एवं निर्विचार सम्प्रज्ञात,
जो कि सूक्ष्म विषय है, की भी
व्याख्या हो गयी ॥४४॥
उन विषयों की सूक्ष्मता
अव्यक्त प्रकृति तक है ॥४५॥
आगम तथा अनुमान से
उदय ज्ञान से यह ज्ञान अलग है
क्योंकि इस में विशेष रूप से
अर्थ का साक्षात्कार होता है
॥४९॥
उस ऋतम्भरा प्रज्ञा
से उदय होने वाले संस्कार, बाकी
सब संस्कारों को काटने वाले
होते हैं ॥५०॥
ऋतम्भरा प्रज्ञा के
संस्कारों का भी निरोध हो जाने
से, सभी संस्कारों का बीज नाश
हो जाने से निर्बीज समाधि होती
है ॥५१॥
साधनपाद
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तप, स्वाध्याय, और ईश्वर
प्रणिधान, यह क्रिया योग है ॥१॥
क्रिया योग का अभ्यास
समाधि प्राप्ति की भावना से,
वित्त में विद्यमान क्लेशों
को क्षीण करने के लिए है ॥२॥
अविद्या अस्मिता राग
द्वेष अभिनिवेश यह पाँच क्लेश
है ॥३॥
अविद्या बाकी चारों,
अस्मिता राग द्वेष अभिनिवेश,
इन क्लेशों की उत्पत्ती के लिए
क्षेत्र रूप है ॥४॥
अनित्यत्व अपवित्र
दुख, अनात्म में क्रमशः नित्यत्व,
पवित्रता, सुख तथा आत्मभाव की
बुद्धि का होना अविद्या है ॥५॥
देखने वाली शक्ति
तथा देखने का माध्यम चित्त शक्ति
दोनों की एकात्मता अस्मिता है
॥६॥
सुख भोगने पर, उसे फिर
से भोगने की इच्छा बनी रहती है,
वह राग है ॥७॥
दुख भोगने पर, उससे
बचने की इच्छा, द्वेष है ॥८॥
स्वभाव से प्रवाहित
होने वाला, सामान्य जीवों की
भाँति ही विद्वानों को भी लपेट
लेने वाला, अभिनिवेश है ॥९॥(शरीर
के बचाव की इच्छा)
क्रिया योग द्वारा
तनु किए गए पंच क्लेश, शक्ति के
प्रति प्रसव क्रम द्वारा त्यागे
जाने योग्य हैं, जो सूक्ष्म रूप
में हैं ॥१०॥ (जब चेतना, प्रत्यक्
चेतना होकर ऊपर की ओर चढ़ती है,
तो कारव को कारण में विलीन करती
है, इसे शक्ति का प्रति प्रसव
क्रम कहते हैं । )
ध्यान द्वारा त्याज्य
उन की वृत्तियाँ हैं ॥११॥
क्लेश ही मूल हैं उस
कर्माशय के जो दिखने वाले अर्थ
वर्तमान, तथा न दिखने वाले अर्थ
भविष्य मे् होने वाले जन्मों
का कारण हैं ॥१२॥
जब तक जीव को क्लेशों
ने पकड़ रखा है, तब तक उसके कारण
उदय हुए कर्माशय का फल, जाति आयु
तथा भोग होता है ॥१३॥
वह आयु जाति भोग की
फसल सुख दुख रूपी फल वाली होती
है, क्योंकि वह पुण्य तथा अपुण्य
का कारण है ॥१४॥
परिणाम दुख, ताप दुख
तथा संस्कार दुख बना ही रहता
है, तथा गुणों की वृत्तियों के
परस्पर विरोधी होने के कारण,
सुख भी दुख ही है, ऐसा विद्वान
जन समझते हैं ॥१५॥
त्यागने योग्य है
वह दुख जो अभी आया नहीं है ॥१६॥
(यह योग का उद्देश्य है)
दुख का मूल कारण, द्रष्टा
का दृश्य में संयोग, उलझ जाना,
है ॥१७॥
प्रकाश सत्व , स्थिति
अर्थ तम् तथा क्रियाशील अर्थ
रज् , पंचभूत तथा इन्द्रियाँ
अंग हैं जिसके, भोग तथा मोक्ष
देना जिसका प्रयोजन है, वह दृश्य
है ॥१८॥(योग में दृश्य को दृष्टा
का सेवक अथवा दास माना गया है
, नीचे सूत्र २१ देखें)
गुणों के चार परिणाम
हैं, विशेष अर्थ पाँच महाभूत
आकाश वायु अग्नि जल तथा पृथ्वी,
अविशेष अर्थ प्रकृति की सूक्ष्म
तन्मात्राएँ शब्द स्पर्ष रूप
रस और गंध तथा छठा अहंकार, लिंग
अर्थ प्रकृति में बीजरूप, अलिंग
अर्थ अप्रकट ॥१९॥
देखने वाला द्रष्टा
अर्थ आत्मा, देखने की शक्ति मात्र
है, इसलिए शुद्ध भी है, वृत्तियों
के देखने वाला भी है ॥२१॥
दृश्य का अस्तित्व
क्यों है? केवल दृष्टा के लिए
॥२१॥
जो मुक्ति, सिद्धि
को प्राप्त हो गये हैं, उनके लिए
दृश्य समाप्त होकर भी, अन्य साधारण
जीवों के लिए तो वैसा ही बना रहता
है ॥२२॥
दृश्य के स्वरूप का
कारण क्या है? उसके स्वामि अर्थ
दृष्टा की शक्ति ॥२३॥
(दृश्य के संयोग का,
उलझने का ) कारण अविद्या है ॥२४॥
उस अविद्या के अभाव
से, संयोग का भी अभाव हो जाता
है, यही हान है जिसे कैवल्य मुक्ति
कहा जाता है ॥२५॥
विवेक अर्थ दृश्य
तथा दृष्टा की भिन्नता का निश्चित
ज्ञान, हान का उपाय है ॥२६॥
उस विवेक ख्याति
की सात भुमिकिएं हैं ॥२७॥
अष्टांग योग के अनुष्ठान
से अशुद्धि का क्षय तथा विवेक
ख्याति पर्यन्त प्रकाश होता
है ॥२८॥
यम, नियम, आसन, प्राणायाम,
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं
समाधि, यह योके आठ अंग हैं ॥२९॥
दूसरे को मन, वाणी,
कर्म से दुख न देना, सत्य बोलना,
ब्रह्मचर्य, तथा संचय वृत्ति
का त्याग, यह पाँच यम कहे जाते
हैं ॥३०॥
ये यम जाति, देश, काल
तथा समय की सीमा से अछूते, सभी
अवस्थाओं में पालनीय, महाव्रत
हैं ॥३१॥
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय
तथा ईश्वर प्रणिधान, यह नियम
हैं ॥३२॥
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